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6. कुंडलिनी योग : चक्रों के गुण और इन्द्रियाँ

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समस्त स्थूलभूतों की उत्पत्ति तन्मात्राओं से हुई है, जो स्थूलभूत जिस तन्मात्रा से उत्पन्न हुआ है वह तन्मात्रा ही उस स्थूलभूत का गुण कहलाती है। आकाश तत्त्व की उत्पत्ति शब्द तन्मात्रा से हुई है इसलिए आकाश का मुख्य गुण शब्द है, वायु तत्त्व की उत्पत्ति स्पर्श तन्मात्रा से हुई है इसलिए वायु का मुख्य गुण स्पर्श है, अग्नि तत्त्व की उत्पत्ति रूप तन्मात्रा से हुई है इसलिए अग्नि का मुख्य गुण रूप है, जल तत्त्व की उत्पत्ति रस तन्मात्रा से हुई है इसलिए जल का मुख्य गुण रस है तथा पृथ्वी तत्त्व की उत्पत्ति गंध तन्मात्रा से हुई है इसलिए पृथ्वी का मुख्य गुण गंध है। चूँकि सभी स्थूलभूत तत्त्व किसी न किसी चक्र से सम्बंधित हैं इसीलिए प्रत्येक स्थूलभूत तत्त्व का गुण ही उससे सम्बंधित चक्र का गुण कहलाता है। मूलाधार चक्र का तत्त्व पृथ्वी है इसलिए इस चक्र का गुण गंध है, स्वाधिष्ठान चक्र का तत्त्व जल है इसलिए इस चक्र का गुण रस है, मणिपुर चक्र का तत्त्व अग्नि है इसलिए इस चक्र का गुण रूप है, अनाहत चक्र का तत्त्व वायु है इसलिए इस चक्र का गुण स्पर्श है तथा विशुद्धि चक्र का तत्त्व आकाश है इसलिए इस चक्र का गुण शब्द है। प्राणी शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं। श्रोत्र, स्पर्श, चक्षु, रसना व घ्राण को ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं तथा वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ व पायु को कर्मेन्द्रियाँ कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से जीव को बाह्य जगत के विषयों का ज्ञान होता है तथा कर्मेन्द्रियों से जीव कर्म करता है। वैसे तो ये चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं परन्तु एक ज्ञानेन्द्रिय एवं एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बंध विशेष रूप से होता है। मूलाधार चक्र की ज्ञानेन्द्रिय घ्राण व कर्मेन्द्रिय पायु है, स्वाधिष्ठान चक्र की ज्ञानेन्द्रिय रसना व कर्मेन्द्रिय उपस्थ है, मणिपुर चक्र की ज्ञानेन्द्रिय चक्षु व कर्मेन्द्रिय पाद है, अनाहत चक्र की ज्ञानेन्द्रिय त्वचा व कर्मेन्द्रिय हस्त है तथा विशुद्धि चक्र की ज्ञानेन्द्रिय श्रोत्र व कर्मेन्द्रिय वाणी है।
                                                                     ~ आचार्यश्री