जिस प्रकार घुन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता हुआ चलता है तो उसके काटे हुए स्थान की कुछ आकृतियाँ भी बन जाती हैं। उसी प्रकार जब प्राणवायु चक्रों में से होता हुआ आवागमन करता है तो उसका मार्ग चक्र की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा-मेढ़ा होता है; इस गति की आकृति देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है इसलिए वायुमार्ग को चक्रों के अक्षर कहते हैं। मूलाधार चक्र में चार पद्मदल होते हैं जब प्राणवायु मूलाधार चक्र में से आवागमन करता है तो इस चक्र के चारों दलों में देवनागरी के “वँ, शँ, सँ, षँ” अक्षरों की आकृति निर्मित होती है। स्वाधिष्ठान चक्र में छह दल होते हैं जब प्राणवायु इस छह दल वाले चक्र में से आवागमन करता है तो इसमें “बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ” अक्षरों की आकृति बनती है। मणिपुर चक्र में दस पद्मदल होते हैं जिसके अक्षर “डँ, ढँ, णँ, तँ, थँ, दँ, धँ, नँ, पँ, फँ” हैं। अनाहत चक्र बारह दलों वाला है जब प्राणवायु इस चक्र में आवागमन करती है तो इन बारह दलों पर क्रमशः “कँ, खँ, गँ, घँ, ड़ँ, चँ, छँ, जँ, झँ, ञँ, टँ, ठँ” अक्षरों की आकृति बनती है। विशुद्धि चक्र में सोलह पद्मदल होते हैं प्राणवायु द्वारा इस चक्र में आवागमन करने पर क्रमशः “अ” से लेकर “अः” तक सोलह अक्षरों की आकृति निर्मित होती है। आज्ञा चक्र दो दलों वाला है तथा इसके अक्षर “हँ” एवं “क्षँ” हैं। सहस्त्रार चक्र हजार दलों से युक्त होता है तथा इसमें वर्णमाला के “अँ” से लेकर “क्षँ” तक के समस्त अक्षरों की पुनरावृत्ति होती है। इन अक्षरों के अलावा प्राणवायु के प्रवाह से चक्रों में भिन्न-भिन्न कोणों की आकृतियाँ भी निर्मित होती हैं। जिस प्रकार द्रुतगति से बहती हुई नदी में कुछ विशेष स्थानों में भँवर पड़ जाते हैं; ये पानी के भँवर कहीं उथले, कहीं तिरछे, कहीं, गोल और कहीं चौकोर हो जाते हैं। उसी प्रकार जब प्राणवायु का प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है तो वहाँ एक प्रकार के सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति विविध प्रकार के त्रिकोण, चतुष्कोण एवं षट्कोण आदि की तरह बनती है। इन आकृतियों को ही चक्रों के यंत्र कहते हैं। प्राणवायु के प्रवाह से मूलाधार चक्र में चतुष्कोण जैसी आकृति बनती है इसलिए मूलाधार चक्र का यंत्र चतुष्कोण कहलाता है, इसी प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र का यंत्र अर्धचंद्र है, मणिपुर चक्र का यंत्र त्रिकोण है, अनाहत चक्र का यंत्र षट्कोण है, विशुद्धि चक्र का यंत्र वृत्ताकार है, आज्ञा चक्र का यंत्र लिंगाकार है तथा सहस्त्रार चक्र का यंत्र पूर्णचंद्रवत है।
~ आचार्यश्री