Acharyasri Sachchidanand Trust

षट्चक्र क्रिया : अस्वस्थ को स्वस्थ और स्वस्थ को परम स्वस्थ बनाने की योग विधि

Share Post:

Share on facebook
Share on linkedin
Share on twitter
Share on email
इडा पिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्णा या भवेत् खलु।
षट्स्थानेषु च षट्शक्तिं षट्पद्मं योगिने विदुः।। 
                                    (शिवसंहिता २:२७)
अर्थात “इड़ा और पिंगला के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है उसके मध्य में छह स्थानों में छह शक्तियाँ हैं व छह पद्म (चक्र) हैं।”
शिवसंहिता में जिन छह चक्रों का उल्लेख किया गया है उनके नाम इस प्रकार हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिस्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र। योगशास्त्र में जिन चैतन्य ऊर्जा केंद्रों को चक्र या पद्म के नाम से सम्बोधित किया गया है; शरीरशास्त्रियों एवं चिकित्सा विशेषज्ञों ने उन ऊर्जा केंद्रों की संगति विशिष्ट ग्रंथियों में बैठाई है, जिन्हें अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ (एंडोक्राइन ग्लैंड्स) कहते हैं। शरीरशास्त्रियों ने इन्हें विशेष प्रकार के जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड) माना है। आधुनिक शरीरशास्त्र के अनुसार मूलाधर चक्र का सम्बन्ध प्रजनन ग्रन्थियों (रिप्रोडक्टिव ग्लैंड्स) से है, स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध अधिवृक्क ग्रंथि (एडिरनल ग्लैंड) से है, मणिपुर चक्र का सम्बंध अग्न्याशय (पेन्क्रियाज) से है, अनाहत चक्र का सम्बंध बाल्यग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) से है, विशुद्धि का सम्बंध अवटु ग्रंथि (थायरॉइड ग्लैंड) से है और आज्ञा चक्र का सम्बंध पीयूष (पिट्युटरी) व गावदुम (पीनियल ग्लैंड) से है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ नलिका विहीन (डक्ट्लस) होती हैं अतः यह ग्रन्थियाँ नलिका के अभाव में अपने स्राव को सीधे रुधिर परिसंचरण में मुक्त करती हैं। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रावित स्राव को अन्तःस्राव या हार्मोन कहते हैं। ये हार्मोन रुधिर के साथ उन अंगों तक पहुँच जाते हैं, जहाँ इनका प्रभाव होना होता है। यदि सूक्ष्म शरीर में अवस्थित छह चक्रों में से कोई चक्र किन्हीं कारणों से निष्क्रिय रहता है तो इसका प्रभाव उस चक्र की अन्तःस्त्रावी ग्रन्थि पर पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप चक्र से सम्बंधित ग्रंथि शरीर की आवश्यकतानुसार हार्मोन पैदा नहीं कर पाती है अतः शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग हो जाते हैं। “षट्चक्र क्रिया” के नियमित अभ्यास से छहों चक्र सक्रिय रहते हैं तथा अंतःस्रावी तंत्र निर्बाध रूप से सहजतापूर्वक अपना कार्य करता रहता है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों के अनुसार स्थूल शरीर पंचभूतों से मिलकर बना है जिन्हें, आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी तत्व के नाम से जाना जाता है। इन पंचतत्वों के असंतुलन से त्रिदोष उत्पन्न हो जाते हैं; त्रिदोष का तात्पर्य है वात, पित्त व कफ से उत्पन्न होने वाले रोग। मानव शरीर में वात दोष से अस्सी, पित्त दोष से चालीस तथा कफ दोष से बीस प्रकार के रोग होते हैं। आकाश व वायु तत्व के असंतुलन से वात रोग होते हैं, अग्नि तत्व के असंतुलन से पित्त रोग होते हैं और जल व पृथ्वी तत्व के असंतुलन से कफ रोग होते हैं। स्थूल शरीर के पंचतत्वों का सूक्ष्म शरीर में अवस्थित चक्रों से घनिष्ठ सम्बंध रहता है। पृथ्वी तत्व का सम्बंध मूलाधार चक्र से है, जल तत्व का सम्बंध स्वाधिष्ठान चक्र से है, मणिपुर चक्र का सम्बंध अग्नि तत्व से है, वायु तत्व का सम्बंध अनाहत चक्र से है तथा आकाश तत्व का सम्बंध विशुद्धि चक्र से है। “षट्चक्र क्रिया” का अभ्यास करते रहने से पंचतत्व संतुलित रहते हैं जिससे त्रिदोषों का शमन होता है।
                                                                     ~ आचार्यश्री