ब्रह्मयोग समाधि वैदिक पद्धति पर आधारित ब्रह्म से जुड़ने की एक सहज प्रक्रिया है। जुड़ा अथवा मिला उससे जाता है जो दूर हो; दूरी तीन प्रकार की होती है- काल की दूरी, स्थान की दूरी और ज्ञान की दूरी। पहली है काल की दूरी, जिनका जन्म हमसे पूर्व होकर देहांत हो चुका है उनसे हमारी काल की दूरी कहलाती है, जैसे कि स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व हुआ था अतः आज के मनुष्यों एवं स्वामी दयानंद के बीच की दूरी काल की दूरी कहलाएगी। चूँकि ईश्वर जन्म-मृत्यु से रहित है, वह तीनों कालों में विद्यमान रहता है अतः मनुष्य व ईश्वर के बीच काल की दूरी सिद्ध नहीं होती। दूसरी है स्थान की दूरी, स्थान की दूरी से तात्पर्य है किन्ही दो मनुष्यों के बीच स्थान का अंतर; जैसे कि राम श्याम से दो किलोमीटर दूर रहता है। चूँकि ईश्वर सर्वव्यापी है, वह जगत के समस्त जड़-चेतन पदार्थों में व्याप्त है इसलिए मनुष्य व ईश्वर के बीच स्थान की दूरी भी सिद्ध नहीं होती। तीसरी है ज्ञान की दूरी, ज्ञान की दूरी का अर्थ है किसी पदार्थ के सम्बंध में यथावत ज्ञान न होना। जब मनुष्य को किसी पदार्थ का यथावत ज्ञान नहीं होता है तब उस पदार्थ का होना मनुष्य के लिए न होने के बराबर हो जाता है; जैसे कि किसी कमरे में एक बल्ब लगा है लेकिन उस कमरे में बैठे व्यक्ति को उस बल्ब की उपयोगिता का ज्ञान नहीं है तो वह व्यक्ति बल्ब के होते हुए भी अंधेरे में ही बैठा रहेगा, व्यक्ति के अज्ञान के कारण कमरे में बल्ब होते हुए भी उसके लिए न होने के बराबर है। जिस मनुष्य को ईश्वर का यथावत ज्ञान नहीं होता उसके लिए ईश्वर का होना न होने के बराबर हो जाता है; मनुष्य व ईश्वर के बीच की इस दूरी को ज्ञान की दूरी कहा जाता है और इस ज्ञान की दूरी का कारण अविद्या है। अविद्या के कारण जीव न तो स्वयं के चैतन्यस्वरूप को जान पाता है और न ही सच्चिदानंदस्वरूप ब्रह्म से जुड़ पाता है। जब तक जीव की अविद्या का नाश नहीं होता तब तक वह शरीर व स्वयं के बीच के अंतर को नहीं समझ पाता तथा वह स्वयं को शरीर ही मानता है परन्तु ब्रह्म-योगाभ्यास के द्वारा जब साधक की अविद्या का नाश हो जाता है तो वह स्वयं को शरीर से भिन्न मानने लगता है। वस्तुतः सच्चिदानंदस्वरुप ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है परन्तु अविद्या के कारण प्रकृति के मोहपाश में बँधा हुआ मनुष्य ईश्वर की अनुभूति नहीं कर पाता। ब्रह्मयोग विद्या के द्वारा जब चैतन्यस्वरूप आत्मा जड़ प्रकृति के मोहपाश को काट कर निजस्वरूप में अवस्थित हो जाता है तो उसे जगत के समस्त जड़-चेतन पदार्थों में सच्चिदानंदस्वरूप ईश्वर की अनुभूति होने लगती है। ब्रह्म-योगाभ्यास से जीव स्वयं एवं प्रकृति के मध्य भेद को जानकर ईश्वर से जुड़ जाता है और जो ईश्वर से जुड़ जाता है वह सदा-सर्वदा परमानन्द में रहता है।
~ आचार्यश्री