“प्राणशक्ति क्रिया” रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और श्वसन तंत्र को स्वस्थ रखने की एक सरल व शक्तिशाली यौगिक क्रिया है। मानव शरीर में प्राण नामक शक्ति श्वसन तंत्र को चलाती है; यह श्वास को अंदर की ओर खींचती है तथा वक्षीय क्षेत्र को गतिशीलता प्रदान करती है। शरीर में यह शक्ति हृदय प्रदेश की सूक्ष्म नाड़ियों में विचरण करती है। हृदय की जिन सूक्ष्म नाड़ियों में यह विचरती है उन नाड़ियों में यदि किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न हो जाए तो यह अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाती है जिससे शरीर में श्वसन तंत्र के रोग उत्पन्न होने लगते है। “प्राणशक्ति क्रिया” के नियमित अभ्यास से हृदय प्रदेश की नाड़ियां शुद्ध होती हैं जिससे प्राण-शक्ति का कार्य सहज हो जाता है। हृदय प्रदेश की जिन नाड़ियों में यह शक्ति विचरण करती है उन्हीं में से एक सुषुम्ना नामक नाड़ी में अनाहत चक्र स्थित है। स्थूल शरीर में अनाहत चक्र का सम्बन्ध थाइमस ग्रंथि से है; यह ग्रंथि गर्दन के नीचले और छाती के ऊपरी हिस्से में होती है तथा यह थाइमस हार्मोन स्रावित करती है जो शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में मदद करती है। अनाहत चक्र के निष्क्रिय रहने से थाइमस ग्रंथि अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाती जिसके परिणामस्वरूप शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है। “प्राणशक्ति क्रिया” अनाहत चक्र को सक्रिय रखती है जिससे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत रहता है। शरीर में नाग नामक शक्ति प्राण की सहयोगी शक्ति मानी जाती है। भोजन के साथ जो अतिरिक्त वायु पेट में चली जाती है उस वायु को नाग-शक्ति डकार के द्वारा शरीर से बाहर निकालने का कार्य करती है। “प्राणशक्ति क्रिया” नाग नामक शक्ति के मार्ग में आए अवरोधों को भी दूर करती है जिससे यह अपना कार्य सहजता से करती रहती है। इस यौगिक क्रिया का अभ्यास शरीर में जमा विषैले पदार्थों को जला देता है और वात, पित्त, कफ को संतुलित करता है। फेफड़ों में तीव्र गति से वायु आने-जाने के कारण रक्त में ऑक्सीजन के मिलने और कार्बन डाइऑक्साइड के बाहर निकलने की दर में वृद्धि होती है; इस कारण चयापचय की गति बढ़ जाती है जिससे ताप उत्पन्न होता है और शरीर से विषाक्त पदार्थ निष्कासित हो जाते हैं। इस क्रिया से फेफड़े स्वच्छ होते हैं तथा श्वसन तंत्र से सम्बंधित रोगों में विशेष लाभ मिलता है। यह तंत्रिका तंत्र में संतुलन लाता है और उसे मजबूत बनाता है, साथ ही पाचन तंत्र के अंगों को पुष्ट बनाता है। इस क्रिया के अभ्यास से शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है तथा रक्त परिसंचरण भी ठीक रहता है। इसका नियमित अभ्यास मस्तिष्क के गोलार्द्धों को संतुलित रखता है जिससे मस्तिष्क क्रियात्मक व संवेदनशील बनता है तथा मन शांत व प्रसन्नचित्त रहता है।
~ आचार्यश्री