जिज्ञासु : देवता किस-किस को कहा जाता है तथा यह कितने हैं?
आचार्यश्री : देवताओं के प्रकरण में निरुक्ताचार्य यास्क ने कहा है-
“देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा।”
भावार्थ- जो दान दे वो देव है, जो ‘दीपन’ अर्थात् प्रकाश करे वह देव है, जो ‘द्योतन’ अर्थात् सत्योपदेश करे वह देव है, जो ‘द्युस्थान’ अर्थात् ऊपर स्थित रहे वह देव है। ( निरुक्त, ७:१५ )
तदनुसार चूँकि देव का लक्षण है ‘दान’ अतः जो सबके हितार्थ अपनी वस्तु दे दे, वह देव है। देव का गुण है ‘दीपन’ अर्थात् प्रकाश करना अतः सूर्य, अग्नि आदि पदार्थ प्रकाश करने के कारण देव कहलाते हैं। देव का कर्म है ‘द्योतन’ अर्थात् सत्योपदेश करना इसलिए जो मनुष्य सत्य माने, सत्य बोले और सत्य ही करे, वह देव कहलाता है। देव की विशेषता है ‘द्युस्थान’ अर्थात् ऊपर स्थित होना इसलिए ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को, समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं। देव शब्द के अनेक अर्थ हैं, देव शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है परन्तु भाव और प्रयोजन के अनुसार अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्राचीनकाल में महर्षि याज्ञवल्क्य और विदग्ध शाकल्य के मध्य देवों के विषय पर एक प्रसिद्ध संवाद हुआ था जो कि इस प्रकार है-
“विदग्ध ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि तैंतीस देव कौन-से हैं ? याज्ञवल्क्य ने कहा- आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, एक इन्द्र और एक प्रजापति। विदग्ध ने पूछा- आठ वसु कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने कहा- अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा और नक्षत्र; ये आठ वसु कहलाते हैं। चूँकि ये दूसरों को अपने में बसाये हुए हैं इसलिए वसु कहलाते हैं। विदग्ध ने पूछा- ग्यारह रुद्र कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने कहा- प्राणियों में जो दस प्राण ( प्राण, अपान, समान आदि ) और एक आत्मा है, यही ग्यारह रुद्र हैं; जब ये शरीर से निकल जाते हैं तो शरीर निष्क्रिय अथवा मृत हो जाता है। चूँकि जब यह ग्यारह देव शरीर छोड़कर जाते हैं तब मरण होने से सम्बन्धियों को रुलाते हैं इसलिए ये रुद्र कहलाते हैं। विदग्ध ने पूछा- बारह आदित्य कौन हैं ? याज्ञवल्क्य ने कहा- संवत्सर के बारह मास ( चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि ) ही बारह आदित्य हैं; चूँकि ये सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु की ग्रहण करते चले जाते हैं इसलिए इनका नाम आदित्य है। विदग्ध ने पूछा- इन्द्र कौन है ? याज्ञवल्क्य ने कहा- गरजने वाला ( मेघ ) ही इन्द्र है। विदग्ध ने पूछा- गरजने वाला कौन है ? याज्ञवल्क्य ने कहा- विद्युत ही गरजने वाला है। बिजली से मेघ वर्षा करता है, उससे अन्नादि उत्पन्न होकर ऐश्वर्य की वृद्धि होती है; यही इन्द्र का रूप है। विदग्ध ने पूछा- प्रजापति कौन है ? याज्ञवल्क्य ने कहा- यज्ञ ही प्रजापति है। विदग्ध ने पूछा- यज्ञ कौन है ? याज्ञवल्क्य ने कहा- पशु ही यज्ञ है; पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है। ( शतपथ ब्राह्मण, १४:६:९:३-७ )
महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित उपरोक्त तैंतीस देवों के अतिरिक्त शास्त्रों में ईश्वर, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, विद्वान, इन्द्रियाँ तथा वेद मंत्र आदि को भी देवता कहा गया है।
जिज्ञासु : ईश्वर को ‘देव’ क्यों कहते हैं ?
आचार्यश्री : दान का मुख्य दाता एकमात्र ईश्वर ही है क्योंकि उसने ही जगत को सब पदार्थ दे रखे हैं, ईश्वर के प्रकाश से ही सूर्य, बिजली, अग्नि आदि सब प्रकाशित हो रहे हैं, ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नहीं है। सत्योपदेश करने वाला, विद्यादि पदार्थों का देने वाला, सबका पालन करने वाला तथा सबको प्रकाशित करने वाला होने से एकमात्र ईश्वर ही मुख्य देव है।
जिज्ञासु : माता, पिता, आचार्य और अतिथि को ‘देव’ क्यों कहा गया है ?
आचार्यश्री : पालनकर्ता होने से माता-पिता को, विद्यादाता होने से आचार्य को तथा सत्योपदेश करने से अतिथि को देव कहते हैं; इसीलिए तैत्तिरीय उपनिषद में लिखा है-
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव।
अर्थात “माता को देव मानो, पिता, को देव मानो, आचार्य को देव मानो, अतिथि को देव मानो।। ( तैत्तिरीय उपनिषद, १:११:२ )
जिज्ञासु : विद्वान को ‘देव’ क्यों कहा है ?
आचार्यश्री : “विद्वांसो हि देवा।” ( शतपथ ब्राह्मण, ३:७:३:१० )
शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त वचन में विद्वानों को देव कहा है। विद्या देने तथा सत्योपदेश आदि करने के कारण विद्वान का स्थान समाज में ऊपर होता है इसीलिए विद्वान को देव कहते हैं।
जिज्ञासु : इन्द्रियों को ‘देव’ क्यों कहा है ?
आचार्यश्री : “नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्सत्।” ( यजुर्वेद, ४०:४ )
यजुर्वेद के उपरोक्त वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है। चूँकि इन्द्रियों से शब्द, स्पर्श, रूप आदि का ज्ञान होता है इसीलिए यह देव कहलातीं हैं।
जिज्ञासु : वेद मंत्रों को ‘देव’ क्यों कहा है ?
आचार्यश्री : मंत्रों का देवता नाम इसलिए है क्योंकि उन्हीं से सब अर्थों का यथावत ज्ञान होता है। देवता दिव्य गुणयुक्त पदार्थ को कहते हैं, दिव्य गुणयुक्त पदार्थ व्यक्त अथवा अव्यक्त दोनों हो सकते हैं। परमात्मा से लेकर पृथ्वी-पर्यन्त जो भी पदार्थ दिव्य गुणयुक्त हो वह देवता कहलाता है, वेदों में ऐसे कई दिव्य पदार्थों के नाम आये हैं; जब उनमें से किसी दिव्य पदार्थ की स्तुति या वर्णन वेद मंत्र में हो तो वह उस मंत्र का विषय ( देवता ) कहा जाता है। शौनक ऋषि ने अपने ग्रंथ बृहद्देवता में लिखा है-
“वेदितव्यं दैवतं हि मन्त्रे मन्त्रे प्रयत्नतः।
दैवतज्ञो हि मन्त्राणां तदर्थमवगच्छति।।”
अर्थात “मंत्र-मंत्र में प्रयत्न से उसके देवता ( विषय ) को जानना चाहिए। जो कोई मंत्र के देवता ( विषय ) को जानता है, वह ही उसके अर्थ को समझ सकता है।” ( बृहद्देवता, १:२ )
~ आचार्यश्री