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कलावा या मौली क्यों बांधते हैं?

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प्रश्नकर्ता : कलावा या मौली क्यों बांधते हैं?

आचार्यश्री : कच्चे सूत से बने धागे को कलाई पर बांधने के कारण कलावा कहते हैं। हाथ के मूल में तीन रेखाएँ होती हैं जिन्हें ज्योतिष में मणिबंध कहा जाता है। इन तीन रेखाओं के ऊपर कलावा बांधने के कारण इसे उप मणिबंध भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इस धागे को मौली भी कहते हैं, मौली का शाब्दिक अर्थ होता है ऊपर। इस सूत के धागे को कलाई में जहां पर बांधते हैं वहां पर वात, पित्त और कफ से संबंधित तीन नाड़ियां होती हैं, उन तीन नाड़ियों के ऊपर बांधने के कारण इस धागे को मौली कहते हैं। मौली का धागा कच्चे सूत से तैयार किया जाता है जो कि लाल, पीला अथवा केसरिया रंग का होता है। कच्चे सूत से बनाई गई मौली को कलाई पर बांधने से यह त्रिदोषों को संतुलित रखने में सहायता करती है। वात, पित्त और कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में जब वात, पित्त और कफ संतुलित रहते हैं, तब शरीर स्वस्थ रहता है। इसके विपरीत जब ये असन्तुलित हो जाते हैं, तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है। मनुष्य के शरीर में समस्त रोग त्रिदोषों के असंतुलन से ही उत्पन्न होते हैं। वात के असंतुलन से 80 पित्त के असंतुलन से 40 और कफ के असंतुलन से लगभग 20 प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। कुछ आयुर्वेदिक शास्त्रों में कफ रोगों की संख्या 28 भी बताई गई है लेकिन मुख्यरूप से कफ रोग बीस प्रकार के ही होते हैं। मनुष्य के शरीर में त्रिदोषों के असंतुलन से कुल मिलाकर लगभग 140 रोग उत्पन्न होते हैं। सामान्य रूप से सिर से लेकर छाती के बीच तक जितने रोग होते हैं वो सब कफ बिगड़ने के कारण होते हैं। छाती के बीच से लेकर पेट एवं कमर के अंत तक जितने रोग होते हैं वो पित्त बिगड़ने के कारण होते हैं और कमर से लेकर घुटने व पैरों के अंत तक जितने रोग होते हैं वो सब वात बिगड़ने के कारण होते हैं। वात, पित्त और कफ ये तीनों ही मनुष्य की आयु के साथ अलग अलग ढंग से बढ़ते हैं। बच्चे के पैदा होने से 14 वर्ष की आयु तक कफ के रोग ज्यादा होते हैं। 14 वर्ष से 60 वर्ष तक पित्त के रोग सबसे ज्यादा होते हैं और 60 वर्ष के बाद वृद्धावस्था में वात के रोग सबसे ज्यादा होते हैं। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य के शरीर में जितने भी रोग होते हैं वे सभी वात, पित्त और कफ के असंतुलन से ही होते हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार मनुष्य के शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है। हमारे हाथ की कलाई में वात, पित्त और कफ की तीन नाड़ियाँ होती हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सक इन नाड़ियों का परीक्षण करके ही रोगों का पता लगाते थे। चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार कलाई पर मौली बांधने से वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है क्योंकि हाथ में बंधा हुआ मौली धागा एक एक्यूप्रेशर की तरह काम करते हुए त्रिदोषों को संतुलित रखने में सहायक होता है। इसीलिए प्राचीनकाल से लेकर अब तक भारत में मौली बांधने की परम्परा चली आ रही है।

धार्मिक अनुष्ठान हो या पूजा-पाठ, कोई मांगलिक कार्य हो या देवों की आराधना, सभी शुभ कार्यों में हाथ की कलाई पर मौली बांधने की परंपरा है। यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान संकल्प सूत्र के रूप में मौली बांधे जाने की परंपरा तो अत्यंत प्राचीनकाल से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार जब देवताओं के राजा इंद्र वृत्रासुर से युद्ध करने के लिए जा रहे थे तो युद्ध में जाने से पहले इंद्र की पत्नी ने भी इंद्र के हाथ पर रक्षा की कामना से मौली बांधी थी और इस युद्ध में इंद्र विजयी हुए थे।

~ आचार्यश्री